वीर छत्रपति शिवाजी महाराज के "हर-हर महादेव" के युद्धघोष के साथ जो सपना 'हिंदू स्वराज' लाने का देखा था, उसे पूरा करने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका वीर बाजीराव पेशवा प्रथम ने निभाई। वीर बाजीराव ने न केवल मराठा साम्राज्य को बढ़ाया, बल्कि पूरे भारत में हिंदू साम्राज्य की नींव भी रखी। उनका नाम भारतीय इतिहास में वीरता और अद्वितीय युद्ध कौशल के प्रतीक के रूप में लिया जाता है। बाजीराव पेशवा, जिनसे अंग्रेज और मुगलों दोनों में डर था, वे मराठा साम्राज्य के चौथे पेशवा थे और उन्होंने अपने नेतृत्व में 41 युद्धों में विजय प्राप्त की। यह उल्लेखनीय है कि एक भी युद्ध में उन्हें हार का सामना नहीं करना पड़ा।
बाजीराव का जन्म और प्रारंभिक जीवन
बाजीराव का जन्म 18 अप्रैल 1700 को कोंकण क्षेत्र के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वे बालाजी विश्वनाथ के पुत्र थे, जो छत्रपति शाहू के पहले पेशवा थे। अपने पिता की मृत्यु के बाद, केवल 20 वर्ष की आयु में बाजीराव को पेशवा का पद सौंपा गया। उनका चयन महज एक राजनीतिक निर्णय नहीं था, बल्कि शाहू महाराज को उनकी बुद्धिमत्ता और युद्ध कौशल का अंदाजा पहले ही हो गया था। जब बाजीराव पेशवा बने, तो उनकी सेना और रणनीति में दम था, जिससे वे मराठा साम्राज्य के विस्तार में सफल रहे।
बाजीराव का युद्ध कौशल
बाजीराव पेशवा को युद्ध में उनकी अद्वितीय रणनीतियों और तेज आक्रमण के लिए पहचाना जाता था। उनका प्रमुख युद्ध कौशल 'ब्लिट्जक्रिग' जैसी रणनीति पर आधारित था, जो द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश जनरल मोंटगोमरी ने अपनाई थी। बाजीराव की युद्ध पद्धतियां ऐसी थीं कि वह बिना किसी रोक-टोक के तेज गति से अपने शत्रुओं पर आक्रमण करते थे। उनकी सेना में बहुत कम सैनिक होते हुए भी वे बड़े-बड़े साम्राज्य और किलों को मात देने में सफल रहते थे। उदाहरण स्वरूप, उन्होंने मुगलों और निजाम की सेनाओं को कई बार हराया और हर जंग में अपनी रणनीति से सबको चौंका दिया।
महत्त्वपूर्ण युद्ध और अभियान
बाजीराव ने युद्ध के मैदान में कई ऐतिहासिक जीतें हासिल कीं। 1728 में पल्खेड की लड़ाई में उन्होंने निजाम की सेना को बुरी तरह हराया, और इस जीत ने उनकी कूटनीतिक ताकत को साबित किया। इसी तरह, 1731 में गुजरात में भी उन्होंने सर्बुलंद खान को हराकर मुघल साम्राज्य को चुनौती दी। 1737 में दिल्ली के करीब, मात्र 500 सैनिकों के साथ बाजीराव ने मुगलों को डराया और अपना प्रभाव स्थापित किया। इस हमले ने मुगलों के आत्मविश्वास को तोड़ा और भारत में मराठों के दबदबे की शुरुआत हुई।
बाजीराव की नेतृत्व क्षमता
पेशवा बाजीराव का नेतृत्व केवल सैन्य विजय तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने मराठा साम्राज्य को राजनीतिक दृष्टिकोण से भी मजबूत किया। उन्होंने मुघल साम्राज्य के खंडन में भाग लिया और न केवल कश्मीर से लेकर कर्नाटका तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया, बल्कि उन्होंने बुंदेलखंड और मध्य भारत की रियासतों को भी अपने नियंत्रण में लिया। उनकी दूरदर्शिता और रणनीतिक समझ ने मराठा साम्राज्य को एक सशक्त शक्ति बना दिया, जो मुगलों और अंग्रेजों के लिए एक गंभीर चुनौती बन गई।
बाजीराव का धार्मिक दृष्टिकोण और साम्राज्य का विस्तार
बाजीराव ने अपने राज्य में धार्मिक विविधता को स्वीकार किया, जहां उनकी सेना में मुस्लिम सेनापति भी थे, जो युद्ध के पहले 'हर-हर महादेव' का उद्घोष करते थे। उन्होंने "हिंदू पद पादशाही" का सिद्धांत प्रस्तुत किया और अपने शासन में सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान रखा। उनका प्रमुख उद्देश्य हिंदू स्वराज्य की स्थापना था, जिसमें वे सफल रहे। उन्होंने ग्वालियर, इंदौर, गायकवाड़, और धार की रियासतों को मराठा साम्राज्य में समाहित किया, जो बाद में स्वतंत्र रूप से शक्तिशाली राज्य बन गए।
पुर्तगालियों और सिद्दियों के खिलाफ युद्ध
बाजीराव ने पुर्तगालियों के खिलाफ भी कई युद्ध लड़े। 1737 में वसई युद्ध के बाद उन्होंने पश्चिमी तटों पर पुर्तगालियों को अपनी सत्ता मानने पर मजबूर किया। इसके अलावा, सिद्दियों के खिलाफ भी उन्होंने कोंकण और जंजीरा क्षेत्र में अपनी विजय सुनिश्चित की।
बाजीराव का निधन
बाजीराव की मृत्यु 28 अप्रैल 1740 को 40 वर्ष की आयु में हुई। उनकी मृत्यु के समय तक उन्होंने मराठा साम्राज्य को एक विशाल और प्रभावशाली शक्ति बना दिया था। उनका असमय निधन मराठा साम्राज्य के लिए एक बड़ा आघात था, क्योंकि उनकी योजनाएं और युद्ध की नीतियां देश को साम्राज्यवादी शक्तियों से मुक्त करने के लिए थीं। अगर बाजीराव का जीवन लंबा होता, तो संभवतः भारत के राजनीतिक नक्शे में कई और परिवर्तन आते, और मराठा साम्राज्य अधिक शक्ति और विस्तार प्राप्त करता।